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Showing posts from 2009

गुम हुई खबरों की बेमिसाल आवाज...

जान फूंकती हर उस खबर मैं..जिसमें मिली एक आवाज...वह आवाज खामोश सी हो गई..खामोशी भी ऐसी...जिसे पाट पाना काफी मुश्किल है..उस आवाज के न रहने के गम में मेरे आंसूओं से भरी श्रद्धांजलि है..उनको...जिन्होंने खबर को अपनी आवाज देकर उसमें जान डालने की निरंतर कोशिश की...खबरों की दुनिया में हरफनमौला और  आवाज के जादूगर अशोक उपाध्याय सर..आज भी उनकी आवाज मेरे कानों में गूंज रही है...मैं उन लम्हों में खो गया...जब अशोक उपाध्याय जी से मेरी पहली मुलाकात हुई थी... ईटीवी मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ में चयन के बाद मैं अपने कुछ साथियों के साथ हैदराबाद स्थित रामोजी फिल्मसिटी पहुंचा....मन में कौतुहल था...वहां से वरिष्ठ पत्रकारों से मिलने का...मेरी सबसे पहली मुलाकात कराई गई..नेशनल हिन्दी डेस्क के हेड अशोक उपाध्याय जी से...अशोक जी को देखने की सबसे ज्यादा उमंग थी. क्योंकि मैं जिस शहर से था..वे भी उसी शहर से थे..मैंने उनके बारे में काफी कुछ सुन रखा था..रोबदार आवाज़, घनी मूंछें और धीर गंभीर व्यक्तित्व के अशोक जी से उस समय पहली मुलाकात कुछ खास नहीं रही. बड़े जोश से मैंने अपना परिचय दिया और सामने से बहुत ही सहज और हलकी-सी प्

नौनिहालों की दास्तां

बाल श्रम को रोकने के लिए सरकार ने न जाने कितने कानून बनाए...कितनी योजनाएं शुरू हुई..अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर न जाने कितने सम्मेलन किए गए...लेकिन आज भी बाल श्रम की हकीकत किसी से छिपी नहीं है...जिन बच्चों की दुनिया कॉपी-किताबों की बीच होनी चाहिए थी..जिनके हाथों में कलम होने चाहिए थे...आज वे बच्चें काम के बोझ तले दबे जा रहे हैं..मैं इन दिनों तीन प्रदेशों के दौरे पर हूँ..जहां बाल मजदूरों की रोकथाम के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाएं की असलियत साफ झलक रही है...ये तस्वीरें साफ बयां कर रही है कि हमारे नौनिहालों का भविष्य किस तरह अधर में लटका हुआ है... बच्चों के भविष्य के लिए सपने संजोने वाले चाचा नेहरू के आत्मा को कितना आघात पहुँचेगा कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी बाल प्रशासन पर रोक लगा पाने में शासन औऱ प्रशासन कोई कारगर कदम नहीं उठा पाया हैं....बाल श्रम को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर कई कानूनों को अमली-जामा पहनाया गया...लेकिन आज भी बाल श्रम के नजारे राहे-बिगाहे देखने को मिल जाते हैं..आज भी चाचा नेहरू के इस देश में लगभग 5 करोड़ बच्चे बाल श्रमिक हैं..जो चाय

.....जिंदगी.....

जिंदगी की राहों पर मेरे कदमों की दास्तां                        मैं दो कदम चलता और एक पल को रुकता मगर.. इस एक पल जिन्दगी मुझसे चार कदम आगे बढ जाती.. मैं फिर दो कदम चलता और एक पल को रुकता और.. जिन्दगी फिर मुझसे चार कदम आगे बढ जाती.. युँ ही जिन्दगी को जीतता देख मैं मुस्कुराता और.. जिन्दगी मेरी मुस्कुराहट पर हैंरान होती... ये सिलसिला यहीं चलता रहता.. फिर एक दिन मुझे हंसता देख नीलांचल ने मुझसे पूछा " तुम हार कर भी मुस्कुराते हो ! क्या तुम्हें दुख नहीं होता हार का ? " तब मैंनें कहा... मुझे पता हैं एक ऐसी सरहद आयेगी जहाँ से आगे जिन्दगी चार कदम तो क्या एक कदम भी आगे ना बढ पायेगी, तब जिन्दगी मेरा इन्तज़ार करेगी और मैं.. तब भी यूँ ही चलता रुकता अपनी रफ्तार से अपनी धुन मैं वहाँ पहचुँगा. एक पल रुक कर, जिन्दगी को देख कर मुस्कुराउगा.. बीते सफर को एक नज़र देख अपने कदम फिर बढाँउगा.. ठीक उसी पल मैं जिन्दगी से जीत जाउगा.. मैं अपनी हार पर भी मुस्कुराता था और अपनी जीत पर भी.. मगर जिन्दगी अपनी जीत पर भी ना मुस्कुरा पाई थी और अपनी हार पर भी ना रो पायेगी..

रेड रिबन इन विलेज

एड्स एक जानलेवा रोग...इस रोग को लेकर एक खास दिन मुकर्रर किया गया है..एक दिसंबर...जिस दिन एड्स को लेकर जागरूकता के कई कार्यक्रम सुनने और देखने को मिलते हैं..पिछले कई सालों से विश्व एड्स दिवस पर मैं रिपोर्टिंग करता आ रहा हूँ..लेकिन इस बार एक पारिवारिक समारोह में शामिल होने के कारण वंचित रह गया..खैर जो भी हो...लिहाजा मैंने अपने ब्लाग पर ही लिखने की ठानी...लेकिन सोचता रहा..क्या लिखूँ..हमेशा की तरह वही घिसी-पिट्टी कहानी..या...एड्स को लेकर सामाजिक संगठनों की बखान जो वे आज के दिन करते हैं...लेकिन इतना सब होने के बावजूद भी इस पर कोई खास लगाम नहीं लगाया जा सका..ब्लाग पर कुछ नया देने के लिए मैंने घुमने का प्लान बनाया..ग्रामीण इलाकों की और निकला...जहां लोगों से बातों-बातों में एड्स के बारे में जानने की कोशिश की....लेकिन कोई भी सीधे मुंह इस बारे में बात करने से हिचकते रहे..एड्स को लेकर आज भी लोगों में कई भ्रांतियां व्याप्त हैं...जिसकी कमी इन ग्रामीण इलाकों में दिखी...स्वंय सेवी संगठन तो लाख ढिंढोरे पिटते हैं कि वे एड्स के लिए कई जागरूक कार्यक्रम चला रहे हैं...लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है... विश्

एक शहर...पहचाना सा..

एक शहर...पहचाना सा.. लेकिन आज..अनजाना सा... सभी यहां हैं..अपना सा.. लेकिन अपनेपन में बेगाना सा.. सभी हैं..अपने-आप में खोयें-खोयें से.. शहर की गलियां वहीं.. चौक-चौराहें वहीं.. फिर भी लगती है...तन्हाई सी न जाने क्यों.. जिसे समझता था..अपना सा वह हो गया बेगाना सा.. एक शहर पहचाना सा... आज हो गया बेगाना सा...

सचिन बनाम बाल ठाकरे.......हिन्दी बनाम मराठी

जब दुनियाभर में सचिन के क्रिकेट जीवन के बीस साल पूरे होने पर उनकी क्रिकेट जीवन की इबारत लिखी जा रही थी..ठीक उसी समय....शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सचिन के खिलाफ पार्टी के मुखपत्र सामना में जहर उगल कर अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश की... सचिन तेंदुलकर को मराठी मानूस वाले खांचे में फिट करने की कोशिश करके बाल ठाकरे ने जहां राष्ट्रीय एकता का अपमान किया है वहीं सचिन को भी नुकसान पहुचाने की कोशिश की है सचिन तेंदुलकर आज एक विश्व स्तर के व्यक्ति हैं. पूरे भारत में उनके प्रसंशक हैं. जगह-जगह उनके फैन क्लब बने हुए हैं. पूरे देश की कंपनियों से उन्हें धन मिलता है क्योंकि वे उनके विज्ञापनों में देखे जाते हैं. इस तरह के व्यक्ति को अपने पिंजड़े में बंद करने की बाल ठाकरे की कोशिश की चारों तरफ निंदा हो रही है. विधान सभा चुनावों में राज ठाकरे की मराठी शेखी की मदद कर रही, कांग्रेस पार्टी ने भी बाल ठाकरे की बात का बुरा माना है. महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री, अशोक चह्वाण ने भी बाल ठाकरे को उनके गैर ज़िम्मेदार बयान के लिए फटकार लगाई है. . लगता है कि शिवसेना के बूढ़े नेता से नौजवानों के हीरो सचिन तेंदुलकर की अपील क

एक अनोखी कलम खामोश..

प्रभाष जोशी के निधन की खबर पाकर मैं स्तब्ध हूं..  वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी एक ऐसा खालीपन छोड़ गए हैं जिसकी भरपाई कर पाना मुश्किल होगा..पत्रकारिता जगत के सशक्त हस्ताक्षर प्रभाष जोशी के निधन से वह कलम खामोश हो गई है..जिससे निकली स्याही एक नई इबादत खड़ी करती थी...अखबारों के पन्नों पर जब वह स्याही उकेरती थी...तब मानो कई सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उद्वेलित हो उठते थे..प्रभाष जोशी के साथ जब मेरी रायपुर के एक होटल में उनसे मुलाकात हुई...तब मैंने सोचा भी नहीं था कि इस बार की चाय और मीडिया दुनिया की चुस्की उनके साथ मेरी आखिरी मुलाकात है..जोशी जी के साथ बिताई गई वह शाम मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा....जोशी जी ने बड़े प्यार से ही मेरे सिर पर हाथ फेरा था...और मुझे कई नेक सलाह भी दिए थे...उन्होंने आज की पत्रकारिता पर खेद प्रकट हुए कहा था कि आज की पत्रकारिता अपने पथ से भटक गई है...और इसके खिलाफ मैं हमेशा लिखता रहूँगा...हिन्दी पत्रकारिता के प्रमुख स्तंभ प्रभाष जोशी के निधन के साथ ही हिन्दी प्रत्रकारिता के एक युग का अवसान हो गया..उन्हें परंपरा और आधुनिकता के साथ भविष्य पर नजर रखने वाले पत्रकार के रू

छठ की छटा

 छठ की छटा....जो पहले कुछ प्रदेशों तक ही सिमटी हुई थी...लेकिन जैसे-जैसे इन प्रदेशों के लोग बाहर निकले...इस पर्व की छटा भी काफी बिखरी...सौभाग्य से मैं भी इसी प्रदेश से ताल्लुक रखता हूँ...लेकिन काम की व्यस्ता के कारण पिछले चार सालों से इस पर्व पर अपने घर नहीं जा सका..इस पर्व पर कोई कितना दूर क्यों ने हो..वह सारे काम छोड़ कर अपने घर जरूर पहुँचता है..घर के बड़े-बुजुर्ग भी यही सलाह देते हैं....लेकिन समय को कुछ और ही मंजूर होता है...लेकिन आज जब मैं घर से दूर रायपुर में हूँ...मुझे इस पर्व पर थोड़ा भी यह एहसास नहीं हुआ कि मैं अपने प्रदेश से कटा हुआ हूँ...छठ की वैसी ही छटा यहां देखने को मिली...  छठ - दो अक्षरों का चार दिनी त्योहार..लोक आस्था का महापर्व..कोई आडंबर नहीं...साफ-सफाई का खास ख्याल...दिवाली में जहां घरों की सफाई होती है, छठ में उससे आगे बढ़कर गलियों, सड़कों और नदियों-तालाबों के किनारों की...कहीं कोई गंदगी नहीं हो - यह ख्याल पूजा के पकवान बनाने से लेकर सूर्य को अर्घ्य देते समय खास रखा जाता है...नदियों-जलाशयों-सूर्य-फलफूल यानी पूरी प्रकृति की आराधना का अवसर..उदीयमान के साथ-साथ अस्ताचलग

मन में फैले अंधियारे को कैसे दूर करूँ ?

जिंदगी के इस मोड़ पर खुद को अकेला पाता हूँ.. सबतरफ चमक ही चमक है.. फिर भी मेरा मन अंधियारापुंज है... रौशनी की तलाश है मुझे.. लेकिन रौशनी कहीं दूर है.. जाने कहां ढूंढे उसे यही मेरे मन में द्वंद है.. खो गया उन लम्हों में. जब थी मेरी जिंदगी हसीन वह पल और यह पल काफी फर्क क्यों है जिंदगी में कई यादें संजोएँ उन यादों में खोएँ-खोएँ अकेला-तान्हां,चला आया मैं न जाने कितने दूर जहां हूँ अकेला तान्हाई को चीरती रौशनी की तलाश में जिंदगी के इस मोड़ पर खुद को अकेला पाता हूँ..

आखिर जिम्मेदार कौन ?

मेरा अंतर्मन हमेशा कई संवेदनशील मुद्दों को लेकर मंथन करता रहता है..चाहे वह राजनीतिक से जुड़ा मसला हो...या अपराधिक घटनाक्रमों से संबंधित...मैं अपनी रिपोर्टिंग में उन सारे किरदारों को जीता हो...जिसका कव्हरेज मैंने किया है..मैं उसके परिणाम को लेकर भी सोचता हूँ...जिससे उस पूरे घटनाक्रम में सजीवता ला सकूँ...एक ऐसा ही मसला है...जिसको लेकर मैं कई बार गहन-चिंतन में डूब जाता हूँ....वह है...जिस्मफरोशी का धंधा...इससे संबंधित करीब दर्जन भर खबरों पर मैनें रिपोर्टिंग की है..लिहाजा इससे संबंधित बार-बार कई सवाल मेरे मन को कुरेदते रहते हैं...जिनके पक्ष को तो मैं अपने रिपोर्टिंग में रख देता हूँ....लेकिन कई अनछुए पहलू छूट भी जाते हैं....जिनको न रख पाने की कशिश रह सी जाती है...उन्हीं कुछ अनछुए पहलुओं को यहां रखने जा रहा हूँ...जिस्मफरोशी का धंधा...और इसमें जुड़े युवती और महिलाएं...यहां एक बात और लिखना जरूरी है..मैं एक पुरूष हूँ...जिससे मेरी भी कुछ शारिरीक इच्छाएं होंगी...मैं भी जवानी के दहलीज पर भटका हूँगा...लेकिन इन सबके बावजूद मैं अपनी बात को यहां बेबाक तरीके से रखना चाहता हूँ..ऐसा नहीं कि हर मामले में प

हाय रे मीडिया

मीडिया..सस्ती लोकप्रियता का एक साधन...जो चाहे किसी को हीरो बना दे..या चाहे तो किसी को हीरो से जीरो...इस साधन का उपयोग हर कोई भरपूर उठाना चाहता है..चाहे वह..राजनेता हो...चाहे वह अभिनेता...या फिर कोई भी...हर कोई इसकी चकाचौंध के दीवाने हैं..दीवाने भी ऐसे की पूछो मत..जो सस्ती लोकप्रियता की चक्कर में सारी हदों को पार करने को तैयार हैं...एक ऐसे ही दीवाने ने सस्ती लोकप्रियता को हासिल करने के लिए अपने अपहरण की मनगढ़त कहानी रच डाली..अपहरण की यह कहानी क्लाइमेक्स पर भी पहुँची...इसे मीडिया ने खूब तवज्जो दिया....इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस कहानी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश भी किया....अगले दिन यह कहानी अखबारों की सुर्खियां भी बनी...राजधानी पुलिस पर सवालिया निशान लगे...चक्काजाम हुआ...प्रशासन को अल्टीमेटम मिला...20 घंटे का ड्रामा सभी को रोमांचित करने वाला था...लेकिन जब मीडिया ने अपहरण की खाल उधेड़नी शुरू की...तो सस्ती लोकप्रियता पाने वाला शख्स आज खुद सलाखों के पीछे पहुँच गया...हाय रे मीडिया...दबे जबान यह शख्स इस बात को स्वीकार करता है... दशहरा की रात देवेन्द्र नगर के एक युवा व्यवसायी जी नागेश के पहले लापता होने

रिश्तेदारी में लूट

मैंने अपनी पत्रकारिता की जिंदगी में कई स्टोरी की...लेकिन कई स्टोरी ऐसी होती है....जिसका उल्लेख करना मैं वाजिब समझता हूँ...ऐसे तो ऐसी बहुत सारी स्टोरी मेरे जेहन में हैं...लेकिन एक स्टोरी ऐसी भी है...जिसने मेरे दिलो-दिमाग पर काफी असर छोड़ा..वैसे भी यह अभी हालिया घटना है..इसलिए इसका जिक्र यहां वाजिब समझता हूँ...इस कहानी में एक लड़की का पिता अपने बेटी की रिश्ते की बात करने एक घर पर पहुँचता है...लेकिन रिश्ते की आड़ में उसके मन में कुछ और ही चल रहा होता है...पेशे से डॉक्टर य़ह शख्स वह कर जाता है...जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती....इस केस को सुलझाने में पुलिस को भी काफी कड़ियां इकट्ठी करनी पड़ी....लेकिन जब आखिर में इस मामले का खुलासा हुआ तो मामला काफी चौंकन्ने वाला था.... यह कहानी है....डॉक्टर रामचंद लालवानी की....जो रिटायर्ड इंकम टैक्स ऑफिसर बगन लाल रगवानी से पूर्व से परिचित था...एक ही समाज के होने के कारण आरोपी रामचंद अपनी पुत्री के लिए ऱंगवानी के पुत्र से शादी करने का इच्छुक था...इसी कारण वह रंगवानी के दुकान पर आया जाया करता था..एक दिन आरोपी डॉक्टर..रिटायर्ड इंकम टैक्स ऑफिसर के घर उसकी पत्न

मि. नटवर की हाईटेक ठगी...मीडिया को भी गुमराह करने की कोशिश

इन जनाब को गौर से देखिए..यह जनाब हैं...राहूल मुखर्जी..जो किसी नटवरलाल से कम नहीं है....इन्होंने फर्जी आयकर विजिलेंस अधिकारी बन रिश्तेदारों समेत दर्जनभर लोगों को नौकरी दिलाने के नाम पर लाखों रुपए की धोखाधड़ी की है....पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद भी यह मीडिया को गुमराह करने की कोशिश कर रहा था..पहले तो इसने अपनी प्रेमिका को विवाहित होना बताकर अपनी प्रेमिका का नाम मीडिया में नहीं लाने का आग्रह किया...इस नटवर लाल के मुताबिक अगर उसकी प्रेमिका का नाम मीडिया में सामने आ गया तो उसकी विवाहित जिंदगी बर्बाद हो जाएगी...लेकिन जब बिलासपुर में रहनेवाली उसकी प्रेमिका की जांच-पड़ताल की गई तो वह महिला विवाहित नहीं निकली...यह नटवर लाल मीडिया को भी गुमराह करने की कोशिश कर रहा था...इसके इस काम में उसकी प्रेमिका की संलिप्ता पाई गई है...हाईटेक ठगी के लिए  बकायदा यह चार महंगी कारें जिसमें पीली बत्ती लगी हुई थी..में घुमा करता था....दरअसल उसने ठगी की वारदात को अंजाम देने के लिए अपनी मानसिकता बना ली थी और पीली बत्ती लगे कार में घुमकर वह अपने रिश्तेदारों और कुछ अन्य परिचित के लोगों जिनकी संख्या दर्जनभर के करीब

कब रूकेगा खिलाड़ियों की जिंदगी से खिलवाड़......

हमारे देश में खिलाड़ियों का तब तक ही दबदबा है....जब तक वे अपने उम्दा खेल का प्रदर्शन कर रहे होते हैं..लेकिन जब ये खिलाड़ी अपने खेल को बाय बोलते हैं...तो उन्हें भी हमारी सरकार बाय बोल देती है..सुविधा के नाम पर केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के पास ढेर सारी योजनाएं हैं...लेकिन इनकी जमीनी हकीकत कुछ औऱ ही है...समय-समय पर ऐसे उदाहरण हमारे सामने आते रहते हैं..ताजा उदाहरण तो ओलंपिक में एथलेटिक्‍स में भारत के लिए पदक जीतने वाली धावक पीटी ऊषा का ही है...लेकिन इससे भी भयावह एक ऐसी खिलाड़ी की दास्तां है..जो जिंदगी की थपेड़ों में ऐसी उलझी की उसे देह-व्यापार के धंधे में धकेल दिया गया..और इस खिलाड़ी की सुध लेने वाला कोई नहीं है..यह खिलाड़ी कोई मामूली खिलाड़ी नहीं है..यह हाईजम्प और लॉग जम्प की अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी है..जिसने देश में ही नहीं देश के बाहर भी जाकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया....और कई मैडल अपने इस वतन के लिए जीतें.....आखिर हमारे खिलाड़ी गुमनामी में क्यों खोते जा रहे हैं..इस सवाल का जबाव शायद किसी के पास नहीं है.... देश के लिए पदक जीतने वाले खिलाड़ियों का एक खास मुकाम है...जिन्हें सरक

मीडिया एक तिलस्म

मीडिया एक तिलस्म...इस पढ़कर हर कोई अचंभित हो सकता है...लेकिन मैंने अपनी पत्रकारिता जीवन की शुरूआत के साथ ही मीडिया को जिस रूप में समझा है...वह यही है...आज की नई पीढ़ी शायद मेरे इस बात से इत्तेफाक रख सकती है..क्योंकि मीडिया की चकाचौंध को देखकर हरकोई लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का हिस्सा बनना चाहता है...लिहाजा इससे जुड़ने के लिए मीडिया इंस्टीटयूट का सहारा लिया जाता है...इन इंस्टीटयूट द्वारा इन्हें सुनहरे सपने दिखाए जाते हैं...सपनों को देखते-देखते कोर्स की अवधि खत्म की कगार पर होती है....इंस्टीट्यूट वाले जैसे-तैसे कर इंटरनशिप करवा देते हैं....यहां से शुरू होती है..मीडिया की भूलभुलैया....बिना पगार नई पीढ़ि की पौध काफी मेहनत करता हैं...इस आस में कि उन्हें नौकरी मिल जाएगी....लेकिन दिलासा और आश्वासन के बीच वे काम करते रहते हैं...समय बीतता जाता है...उनसे अच्छा खासा काम ले करके बाय बोल दिया जाता है.....फिर शुरू होती है..इनकी असली परीक्षा....कोर्स तो किया है....फिर जाएं कहां...किसी तरह इस तिलस्म में आने के लिए कसरत शुरू होती है...जुगाड़ लगाए जाते हैं...कोई इस तिलस्म को भेद पाता है..तो कोई नहीं..

लाइव एनकाउंटर ऑन द टेलीविजन !

आज की नई पीढ़ी कल्पना में जी रही है...फेंटेसी में यह नई-नई कहानियां बुनते रहते हैं...कभी स्पाइडर मैन...कभी सुपर मैन बनकर यह दूसरों से लड़ते हुए अपने-आप को सपने में देखते हैं..लेकिन जब सपना टूटता है..तो इन्हें अपने हकीकत का एहसास होता है....लेकिन कभी-कभी सपनों को यह हकीकत का अमलीजामा पहनाने की कोशिश करते हैं...जिसके कारण ये सलाखों के पीछे भी पहुँच जाते हैं...ऐसा ही कुछ हुआ है..रायपुर के स्कूली छात्र सुमेर सिंह के साथ...जो इसी फेंटेंसी करेक्टर की चक्कर में आज पुलिस की गिरफ्त में पहुँच चुका है..दरअसल यह महोदय एक न्यूज चैनल दफ्तर पहुँचकर खुद को सीबीआई एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बता रहे थे..इनके मुताबिक अब तक 28 एनकाउंटर करने के बाद इन्हें कोलकाता से छत्तीसगढ़ में नक्सली एनकाउंटर करने के लिए भेजा गया है...पुलिस को जब इसकी सूचना मिली तो उनके होश गुम हो गए..गिरफ्तारी के बाद सारा माजरा समझ में आया...पुलिस ने मीडिया बनकर इस सीबीआई एनकाउंटर स्पेशलिस्ट को पकड़ा... अब तक छप्पन, शूटआऊट एट लोखणंडवाला....जैसी फिल्मों से इंस्पायर यह जनाब खुद को सीबीआई एनकाउंटर स्पेशलिस्ट बताते हैं..इन्हें नक्सलियों का लाइव

हादसे पर पत्रकारिता और चाटुकारिता

कोरबा और वहां हुई हादसे की लाइव कवरेज करने मैं रायपुर से यहां पहुँचा. यहां हुई औद्योगिक त्रासदी एक बार फिर भोपाल गैस त्रासदी की याद दिला गई. लेकिन इस त्रासदी ने मेरे अन्तर्मन को झकझोर कर रख दिया. यहां मीडिया के खिलाफ पहले ही तानाबाना बुना जा चुका था. कुछ मजदूरों के मॉब को मीडिया के खिलाफ भड़का कर मीडिया पर भी दबाव बनाने की कोशिश की गई. लेकिन मैं और मेरे साथ गए एक अन्य चैनल के वरिष्ठ पत्रकार ने उस मॉब को बखूबी संभाला. कहने को तो ये मजदूरों के हितैषी थे. लेकिन कहीं से भी इनके चेहरे पर हुई त्रासदी की खौफ नहीं दिख रही थी. यह वह ग्रुप था जो कंपनी प्रबंधन द्वारा तैयार करके घटनास्थल पर मीडिया के खिलाफ साजिश रचने की जुगत में जुटा हुआ था. ये बार-बार लाइव के समय कैमरे के पास आकर मीडिया को बरगलाने की कोशिश कर रहे थे. मना करने के बाद भी यह अनाप-सनाप बोलने से बाज नहीं आते. ऐसे में इन्हें संभाल पाना काफी मुश्किल था. लेकिन इन सबके बीच ऐसे माहौल में पूरे घटनाक्रम और सच्चाई को सामने लाने के लिए हमारी इच्छाशक्ति बढ़ती ही जा रही थी. हम एक के बाद एक यहां जारी खामियों को उजागर कर रहे थे. चाहे वह सरकार की ल