मीडिया एक तिलस्म...इस पढ़कर हर कोई अचंभित हो सकता है...लेकिन मैंने अपनी पत्रकारिता जीवन की शुरूआत के साथ ही मीडिया को जिस रूप में समझा है...वह यही है...आज की नई पीढ़ी शायद मेरे इस बात से इत्तेफाक रख सकती है..क्योंकि मीडिया की चकाचौंध को देखकर हरकोई लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ का हिस्सा बनना चाहता है...लिहाजा इससे जुड़ने के लिए मीडिया इंस्टीटयूट का सहारा लिया जाता है...इन इंस्टीटयूट द्वारा इन्हें सुनहरे सपने दिखाए जाते हैं...सपनों को देखते-देखते कोर्स की अवधि खत्म की कगार पर होती है....इंस्टीट्यूट वाले जैसे-तैसे कर इंटरनशिप करवा देते हैं....यहां से शुरू होती है..मीडिया की भूलभुलैया....बिना पगार नई पीढ़ि की पौध काफी मेहनत करता हैं...इस आस में कि उन्हें नौकरी मिल जाएगी....लेकिन दिलासा और आश्वासन के बीच वे काम करते रहते हैं...समय बीतता जाता है...उनसे अच्छा खासा काम ले करके बाय बोल दिया जाता है.....फिर शुरू होती है..इनकी असली परीक्षा....कोर्स तो किया है....फिर जाएं कहां...किसी तरह इस तिलस्म में आने के लिए कसरत शुरू होती है...जुगाड़ लगाए जाते हैं...कोई इस तिलस्म को भेद पाता है..तो कोई नहीं...जो नहीं भेद पाते वह अपना रास्ता बदल लेते हैं...जो यहां पहुँचते हैं...वे राहत की सांस लेते है...चलो किसी तरह तो यहां पहुँचे...यहां पहुँचने के बाद मीडिया की चकाचौंध काफी रास आती है...लेकिन कुछ समय बाद ही यह एहसास होता है कि अरे हम कहां आ गए...य़हां सब अपने होकर बेगाने जैसे लगते हैं...यहां कोई क्षेत्रवाद की बात करता है..तो कोई जातिवाद की...अगर आप इनदोनों में फिट बैठे हैं..तो ठीक...नहीं तो आपको एक्सट्रा ऑडिनरी होना पड़ता है.......तभी आपका यहां काम हैं..नहीं तो आपको किनारे कर दिया जाता है...अगर चाहकर भी कोई इस तिलस्म से निकलने की कोशिश करता है..तो वह निकल नहीं पाता..हालात के कारण अगर कोई इस तिलस्म से निकलता भी है...तो वह इसी के आसपास रहने की कोशिश करता है.......कहीं उससे यह तिलस्म दूर न हो जाए..इस तिलस्म पर चंद पंक्तियां मेरी तरफ से......
मीडिया है एक तिलस्म
मुश्किल है इसे पार पाना
मुश्किल है इसे भेद पाना
भेदा तो पछतावोगे
मन मषौट कर रह जाओगे
अगर धोखे से इसे भेद दिया
तो फिर तिलस्म में खो जाओगे
मीडिया है एक तिलस्म
इस तिलस्म की दुनिया है निराली
कही आग, कही पानी
कही सवेरा, कही अंधेरा
कोई अपना, कोई बेगाना
तिलस्म का अपना अफसाना
इन अफसानों में कई फसाना
इन फसानों में उलझते जाना
तिलस्म में कहीं खो सा जाना
चाह कर भी निकल नहीं पाना
मीडिया है एक तिलस्म
मीडिया का विस्तार सभी ओर तेजी से हो रहा है.....अखबारों की संख्या और उनकी प्रसार संख्या में बहुमुखी बढ़ोत्तरी हुई है..रेडियों स्टेशनों की संख्या और उनके प्रभाव-क्षेत्रों के फैलाव के साथ-साथ एफ़एम रेडियो एवं अन्य प्रसारण फल-फूल रहे हैं...स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय चैनलों की संख्या भी बहुत बढ़ी है....लेकिन इन सबके बीच मीडिया इंस्टीट्यूट भी काफी बंढ़े हैं....और इससे निकलने वाले भावी पत्रकार भी...जो यहां पहुँचने के लिए हसीन सपने तो देखते हैं...लेकिन यहां पहुँचने वाले कुछ खुदकिस्मत पहुँचकर भी काफी कुछ खोया-खोया सा महसूस करते हैं....
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