एक शहर...पहचाना सा.. लेकिन आज..अनजाना सा... सभी यहां हैं..अपना सा.. लेकिन अपनेपन में बेगाना सा.. सभी हैं..अपने-आप में खोयें-खोयें से.. शहर की गलियां वहीं.. चौक-चौराहें वहीं.. फिर भी लगती है...तन्हाई सी न जाने क्यों.. जिसे समझता था..अपना सा वह हो गया बेगाना सा.. एक शहर पहचाना सा... आज हो गया बेगाना सा...
अफसानें होते हैं... सुनने और सुनाने के.. पढ़ने और पढ़ाने के... आपका, मेरा मेरी जिंदगी का... मेरी पत्रकारिता का... यह अफसाना कहता हूँ सुनाता हूँ जो खोया है वो बताता हूँ कहां-कहां से ढूँढ़ता हूँ मिलते हैं जहाँ जहाँ से सिर्फ-सिर्फ अफसानें हमारे तुम्हारे मिलते हैं मुस्कुराते हैं अफसाने और कुछ कह जाते हैं अफसाने