राजनीति के बाद निर्देशक प्रकाश झा ने एक बार फिर अपनी फिल्म आरक्षण के जरिए समाज से जुड़े एक अहम मुद्दे को उजागर किया है..ये फिल्म अलग-अलग नजरिए से हमें दिखाती है कि आरक्षण पर होने वाली राजनीति का शिकार अंत में आम जनता ही होती है..फिल्म में अमिताभ का डॉयलाग भारत में दो भारत बसते हैं..सहित कई संवाद दिल को झंकझोरने के लिए काफी है..फिल्म दो वर्ग की खाई को पाटने वाली है तोड़ने वाली नहीं..फिल्म में ये संदेश दिया गया है कि समाज के विकास के लिए एक मात्र रास्ता हर वर्ग, हर जाति के बच्चे को शिक्षा का बेहतर मौका देना है...ये प्रतिक्रिया महज सामान्य वर्ग के लोगों की ही नहीं हैं, जिस वर्ग के साथ मजाक किए जाने की बात कही जा रही है..फिल्म काफी अच्छी है, उसमें दो वर्गो को लड़ाने वाली बात पूरी तरह गलत है, इस फिल्म में बिहार के सुपर-30 की झलक दिखाई देती है.. फिल्म में प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) और सुपर-30 के आनंद कुमार के पढ़ाने की शैली एक है..अमिताभ का फिल्म में गणित (मोड जेड =1) की पढ़ाई यहां के गणितज्ञ आनंद से बिल्कुल मिलती-जुलती है...इस फिल्म की शूटिंग के पूर्व फिल्म के निर्देशक प्रकाश झा ने सुपर-30 के संस्थापक कुमार आनंद से उनके पढ़ाने की शैली और क्लास रूम की जानकारी ली थी..फिल्म में सुपर-30 की तरह ही चारों तरफ से खुला एवं बोरा और टाट लगा हुआ क्लास रूम दिखाया गया है...जो यह बताने के लिए काफी है कि आज के समय में समाज के दबे लोगों को आरक्षण की नहीं शिक्षा की बेहद जरूरत है..फिल्म आरक्षण ने, नाटकीय ढंग से ही सही आरक्षण के विस्मृत विमर्शों को कुछ चौंकाने वाली कमजोरियों के साथ जगा दिया है.प्रकाश झा के फिल्मों की यही खासियत है कि वो हमेशा ही पर्दे पर सच को बयां करती हैं..इस फिल्म में खोखली होती शिक्षा व्यवस्था का भी सच लोगों के सामने लाया है..फिल्म की कहानी भोपाल के एक कॉलेज से शुरू होती है जिसके प्रिसिंपल डॉ. प्रभाकर आनंद (अमिताभ बच्चन) हैं जिनके लिए उनके आदर्शवादी सिद्धांतों और नियम ही सबकुछ हैं..इनका मानना है कि शिक्षा पर सब का समान हक है..रिजर्वेशन सिस्टम पर की गयी टिप्पणी के चलते उन्हें कॉलेज के प्रिसिंपल पद हटा दिया जाता है..ऐसे में उनकी मदद करने के लिए सैफ अली खान आगे आते हैं जो इस फिल्म में दीपक के रोल में हैं..दीपक आनंद सर के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं...प्रभाकर के हटते ही कॉलेज कार्यभार मिथिलेश सिंह (मनोज वाजपेयी) को सौप दिया जाता है..मिथिलेश शिक्षा में नहीं व्यवसाय पर विश्वास करता है..आनंद सर का एक और स्टूडेंट है प्रतीक बब्बर जो उच्च वर्ग से संबंध रखता है, लेकिन कुछ ऐसा हो जाता है कि वह भी आनंद सर के खिलाफ खड़ा हो जाता है..यहीं से शुरू यहां से शुरू होती है शिक्षा और व्यावसाय की राजनीति..यह आज की शिक्षा व्यवस्था का आईना भी रखता है..अमिताभ बच्चन ने कॉलेज के आदर्शवादी प्रिंसिपल डॉ. प्रभाकर आनंद के रूप में गहरी छाप छोड़ी है..इस पूरी फिल्म में वो ऐसे किरदार के रूप में नज़र आते हैं जो मेरिट में यकीन करते हैं, साथ ही पिछड़े लोगों को भी शिक्षा का अवसर देना चाहते हैं..इस फिल्म में दीपिका पादुकोण ने अमिताभ बच्चन की बेटी पूर्वी की भूमिका में हैं जो सैफ अली खां को पसंद करती है..फिल्म में कई जगहों पर हुई बहस और विवाद दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर देते हैं...फिल्म में प्रभाकर आनंद की बीवी का कहना है कि बिना आरक्षण दिए भी दलित वर्ग का उत्थान किया जा सकता है..उन्हें आर्थिक सहायता दी जाए, मुफ्त में शिक्षा दी जाए, प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाए..इस पर प्रभाकर का कहना है कि ये सब बातें नहीं हो पाई हैं, इसीलिए आरक्षण किया गया है..शुरुआत में सैफ के इंटरव्यू देने वाला सीन, अमिताभ-सैफ, सैफ-प्रतीक के बीच फिल्माए गए सीन उम्दा हैं...फिल्म आरक्षण को लेकर भले ही दर्शकों में अलग-अलग सोच हो..लेकिन फिल्म के संवाद में पहले हाफ तक मुद्दे और दूसरे हाफ में इसके हल को भली-भांति प्रस्तुत करता है...यह फिल्म रिलीज भी नहीं हुई थी जब टेलीविजन पर दिखाए गए इसके प्रमोशनल संवाद और झलकियों को दलितों की संवेदनशीलता को आघात पहुंचाने वाला माना गया था..यह विवाद दिन-प्रतिदिन बढ़ा...संविधान में अभिव्यक्ति की जो आजादी सुनिश्चित की गई है उसे अवसरवादी तरीके से चोट पहुंचाई गई और इसके बाद जो घटनाएं सामने आईं उन्हें संकीर्णता के दायरे में ही रखा जा सकता है...आरक्षण के विवाद ने भारतीय राजनीति की दो गंभीर बीमारियों को रेखांकित किया है, जिनकी यदि अनदेखी की गई तो वे राष्ट्रीय सुरक्षा पर गंभीर दुष्प्रभाव डालेंगी...शायद कुछ ऐसा ही जैसा इन दिनों लंदन के आस-पास नस्लभेदी दंगों को लेकर देखा जा रहा है..अगस्त 1947 में राष्ट्र के संस्थापकों और संविधान की रचना करने वाले डा. बीआर अंबेडकर सरीखे लोगों ने जाति-पांत से भरे भारतीय समाज में शिक्षा और रोजगार के अवसरों में वंचित वर्ग को आबादी के अनुपात में आरक्षण देकर सामाजिक समानता स्थापित करने की उम्मीद की थी, लेकिन 64 साल बीत जाने के बाद वास्तविकता बहुत बदरंग और खतरनाक है..अनेक राज्यों में जाति और मजहब भारतीय राजनीति को प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी शक्ति बन गई है और देश के अनेक राज्यों में ऐसी मजबूत और वर्चस्व वाले क्षेत्रीय दल उभर आएं हैं जिनका जन्म ही जातीय आधार पर हुआ है...तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार इसके उदाहरण हैं, जबकि पंजाब में मजहबी समूहों की पहचान राजनीति में अहम भूमिका निभाती है..इन मुद्दों पर बहस का ध्रुवीकरण हो चुका है..जिसको कुछ हद तक साधने का काम किया है..फिल्म आरक्षण ने..इस बेहतर फिल्म के लिए आरक्षण की टीम को तहेदिल से शुक्रिया...
मीडिया का व्यवसायीकरण होता जा रहा है..व्यासायी घराने अपना हित साधने के लिए मीडिया और उसके संसाधनों का जबरदस्त दोहन कर रहे हैं...उनके हित के आगे खबरों की कोई अहमियत नही..चाहे वह खबर सामाजिक सारोकार से ही जुड़ा हुआ मुद्दा क्यों न हो...जब हम लोगों को एक पत्रकार के रूप में दायित्वों को बताया गया तब हमने सोचा था कि हम अपने दायित्वों के लिए किसी से समझौता नहीं करेंगे...लेकिन दायित्वों का पढ़ाया गया पाठ अब किताबों तक ही सीमित रह गया है...कौन सी खबर को प्रमुखता से दिखाना है..और कौन सी खबर को गिराना है...ये वे लोग निर्धारित करने लगे हैं..जिनका पत्रकारिता से कोई सारोकार नहीं है...आज का पत्रकार सिर्फ कठपुलती बन कर रह गया है...डमी पत्रकार..इन्हें वहीं करना है...जो व्यसायी घराने के कर्ता-धर्ता कहें..मीडिया के व्यवसायीकरण ने एक सच्चे पत्रकार का गला घोंट दिया है..घुटन भरे माहौल में काम की आजादी छीन सी गई है..व्यवसायी घरानों ने मीडिया को एक जरिया बनाया है..जिसके जरिए वह सरकार तक अपनी पहुँच बना सके..और अपना उल्लू सीधा कर सके..अपना हित साधने के लिए इन्होंने मीडिया को आसान जरिया चुना है...मीडिया के इस
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