नक्सलियों के खिलाफ एक अनोखी लड़ाई..जिसकी अगुवाई कर रहे हैं..बस्तर के कई लोग..यह लड़ाई है..बिना हथियार की..बिना बंदूक की..इस लड़ाई में नक्सलियों के खिलाफ गांधीगीरी तरीके से मुकाबला किया जाने का फैसला किया गया है..छत्तीसगढ के आदिवासी बहुल बस्तर संभाग में नक्सलवादियो के विरोध जन जागरण अभियान सलवा जुडूम के बाद अब गांधीगिरी की तैयारी की गई है..गांधी जंयती के अवसर पर गांधीगीरी की शुरूआत बस्तर के कुटरू गांव से किया गया.माओवादियों के खिलाफ पांच साल पहले शुरू हुआ सलवा जुडूम आंदोलन छठवें साल में दम तोड़ चुका है.इसके साथ ही अब इसे गांधीवाद का मुखौटा पहनाकर पुनर्जीवित करने की कोशिश शुरू की गई है..नया जामा पहनकर गांधी जयंती के दिन अब नए कलेवर में दंडकारण्य शांति संघर्ष समिति के नाम पर कुटरू इलाके के ग्रामीणों ने अहिंसक आंदोलन की विधिवत शुरुआत कर दी है..तमाम तरह के राजनीतिक और गैर राजनीतिक प्रतिरोधों के बाद धीरे-धीरे सलवा जुड़ूम आंदोलन की धार कमजोर पड़ने लगी..पांच साल पहले बीजापुर के कुटरू में ही हजारों ग्रामीणों ने माओवादियों के खिलाफ स्वस्फूर्त हथियार उठा लिए थे..कुटरू से फिर एक बार माओवादियों के खिलाफ आवाज उठी है..आंदोलन के कर्ता-धर्ता इसे पूर्ण रूप से अहिंसक होने की बात कह रहे हैं..भटके युवकों को फिर से मुख्यधारा से जोड़ने की बात कही जा रही है..यह भी कहा जा रहा है कि इतिहास इस बात का गवाह है कि बीजापुर जो आज सोचता है, छत्तीसगढ़ उसे कल अपनाता है..पहले 1911 में भूमकाल, फिर1991 में जनजागरण और इसके बाद 2005 में सलवा जुडूम इसके प्रमाण रहे हैं..माओवाद के खात्मे के लिए यह अनूठा प्रयास है...सलवा जुडूम की क्रांतिकारी विचारधारा के विपरीत पिछले सभी आंदोलनों से अलग होने और गांधीवाद पर चलकर प्रदेश में नक्सली समस्या के स्थायी समाधान की बात कही जा रही है..सलवा जुड़ूम की ज़्यादतियों को लेकर छत्तीसगढ़ सरकार की व्यापक निंदा हुई है..मानवाधिकार कार्यकर्ताओं इसे बंद करने की मांग कर ही रहे थे, इसके ख़िलाफ़ दायर एक याचिका के बाद सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे बंद करने के आदेश दिए थे...हालांकि सरकार इसे जनांदोलन कहती थी लेकिन इसे चलाने के लिए उसने आदिवासी युवाओं को स्पेशल पुलिस ऑफ़िसर (एसपीओ) के रुप में भर्ती की थी और उन्हें हथियार भी दिए थे...इसे बंद करने की घोषणा ऐसे समय में हुई है जब सलवा जुड़ूम के 23 कैंपों में से अधिकांश खाली हो चुके हैं और बहुत से एसपीओ या तो इलाक़ा छोड़कर जा चुके हैं या फिर अपने हथियारों के साथ माओवादियों के साथ जा मिले हैं...ऐसे में बस्तर की आदिवासी संस्कृति और परंपरा ग्लोबल वार्मिग के दौर में गांधीगीरी तरीके से नक्सलियों से निपटने में कारगर है..यह सवाल इसलिए क्योंकि आदिवासी नदी, नाला, पहाड़ और जंगल को देवता मानते हैं और उनको सुरक्षित रखने के तमाम उपाय करते हैं...
मीडिया का व्यवसायीकरण होता जा रहा है..व्यासायी घराने अपना हित साधने के लिए मीडिया और उसके संसाधनों का जबरदस्त दोहन कर रहे हैं...उनके हित के आगे खबरों की कोई अहमियत नही..चाहे वह खबर सामाजिक सारोकार से ही जुड़ा हुआ मुद्दा क्यों न हो...जब हम लोगों को एक पत्रकार के रूप में दायित्वों को बताया गया तब हमने सोचा था कि हम अपने दायित्वों के लिए किसी से समझौता नहीं करेंगे...लेकिन दायित्वों का पढ़ाया गया पाठ अब किताबों तक ही सीमित रह गया है...कौन सी खबर को प्रमुखता से दिखाना है..और कौन सी खबर को गिराना है...ये वे लोग निर्धारित करने लगे हैं..जिनका पत्रकारिता से कोई सारोकार नहीं है...आज का पत्रकार सिर्फ कठपुलती बन कर रह गया है...डमी पत्रकार..इन्हें वहीं करना है...जो व्यसायी घराने के कर्ता-धर्ता कहें..मीडिया के व्यवसायीकरण ने एक सच्चे पत्रकार का गला घोंट दिया है..घुटन भरे माहौल में काम की आजादी छीन सी गई है..व्यवसायी घरानों ने मीडिया को एक जरिया बनाया है..जिसके जरिए वह सरकार तक अपनी पहुँच बना सके..और अपना उल्लू सीधा कर सके..अपना हित साधने के लिए इन्होंने मीडिया को आसान जरिया चुना है...मीडिया के इस
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