प्रकाश झा ने राजनीति जैसे विषय़ को काफी चतुराई के साथ पर्दे पर उतारा है..जिसमें महाभारत काल से लेकर अब तक की भारतीय राजनीति की साफ झलक इसमें मिलती है..राजनीति कोई नया विषय नहीं है.लेकिन इस फिल्म में नए कलेवर के साथ पुराना तड़का भी है.जो फिल्म को दर्शकों से बांधे रखती है.जब प्रकाश झा ने राजनीति की शूटिंग प्रारंभ की तो यह बात फैली कि यह फिल्म सोनिया गांधी के जीवन पर आधारित है.प्रदर्शन के कुछ माह पहले तक जोर-शोर से इसकी ही चर्चा रही.लेकिन जब राजनीति रूपहले पर्दे पर आई तो कहते देर न लगा कि नए कलेवर में महाभारत को दर्शकों के सामने पेश किया गया.जिसमें गाँधी परिवार के कुछ किरदारों के ईद-गिर्द इसे रखा गया है...कैटरीना की चाल-ढाल सोनिया से प्रेरित लगती है..और कैटरीना कैफ के चरित्र का नाम इंदु है.जिससे इंदिरा गांधी का भ्रम पैदा होता है..कभी-कभी ऐसा लगता है कि इंदिरा और सोनिया दोनों की झलक इंदु के किरदार में है..इस पूरे भ्रमजाल में फिल्म की कथा का सोनिया गांधी, राहुल गांधी और इंदिरा गांधी से कोई लेना-देना नहीं है..यहां तक कि अर्जुन रामपाल अभिनीत पात्र का भी संजय गांधी से कोई लेना-देना नहीं है, परंतु समग्र प्रभाव में कहीं कोई साम्य का भ्रम उत्पन्न किया गया है.. आपातकाल के दौरान निर्माता जे. ओमप्रकाश के लिए गुलजार ने कमलेश्वर के उपन्यास काली आंधी पर आधारित सुचित्रा सेन अभिनीत आंधी बनाई थी.यह फिल्म भी काफी विवादों में रही थी..यह भी इत्तेफाक है कि राजनीति के प्रदर्शन के समय ही स्पेनिश लेखक जेवियर मोरो ने द रेड साड़ी नामक किताब प्रकाशित की है, जिसमें सोनिया गांधी के विषय में भ्रामक बातें लिखी गई हैं.जिससे इस फिल्म को इस कितबा से जोड़ कर देखा जाने लगा...कुल मिलार राजनीति में अजय देवगन, मनोज वाजपेयी, रणबीर कपूर, अर्जुन रामपाल और कैटरीना कैफ ने दमदार किरदार निभाए हैं, लेकिन इसमें विदेशी तड़क-भड़क, देसी लटके-झटके, ग्लैमर, आइटम नंबर या कोई अन्य मसाला नहीं है, जैसा कि व्यावसायिक फिल्मों के लिए इन दिनों जरूरी माना जाता है..जिससे सिनेमा हॉल तक खींचने में फिल्म सफल रहती है...
मीडिया का व्यवसायीकरण होता जा रहा है..व्यासायी घराने अपना हित साधने के लिए मीडिया और उसके संसाधनों का जबरदस्त दोहन कर रहे हैं...उनके हित के आगे खबरों की कोई अहमियत नही..चाहे वह खबर सामाजिक सारोकार से ही जुड़ा हुआ मुद्दा क्यों न हो...जब हम लोगों को एक पत्रकार के रूप में दायित्वों को बताया गया तब हमने सोचा था कि हम अपने दायित्वों के लिए किसी से समझौता नहीं करेंगे...लेकिन दायित्वों का पढ़ाया गया पाठ अब किताबों तक ही सीमित रह गया है...कौन सी खबर को प्रमुखता से दिखाना है..और कौन सी खबर को गिराना है...ये वे लोग निर्धारित करने लगे हैं..जिनका पत्रकारिता से कोई सारोकार नहीं है...आज का पत्रकार सिर्फ कठपुलती बन कर रह गया है...डमी पत्रकार..इन्हें वहीं करना है...जो व्यसायी घराने के कर्ता-धर्ता कहें..मीडिया के व्यवसायीकरण ने एक सच्चे पत्रकार का गला घोंट दिया है..घुटन भरे माहौल में काम की आजादी छीन सी गई है..व्यवसायी घरानों ने मीडिया को एक जरिया बनाया है..जिसके जरिए वह सरकार तक अपनी पहुँच बना सके..और अपना उल्लू सीधा कर सके..अपना हित साधने के लिए इन्होंने मीडिया को आसान जरिया चुना है...मीडिया के इस
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