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कहां गए मानवाधिकार कार्यकर्ता ?

नक्सली हिंसा...शहीद होते हमारे जवान..और शहादत को सलाम करते हम लोग..यह क्रम कब तक चलता रहेगा..यह समझ से परे हैं...जब-जब हमारे जवान कोई बड़ी कार्रवाई करते हैं..तब-तब आदिवासियों का हितैषी बत्ताने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ता खड़े हो जाते हैं..लेकिन जवानों के शहीद होने के बाद यही मानवाधिकार कार्यकर्ता चुप्पी साध लेते हैं..आखिर ऐसा क्यों...क्या जवानों का कोई अधिकार नहीं..नक्सली देश के प्रथम शत्रु हैं,लेकिन यह जानना कठिन है कि उन कथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार समर्थकों के खिलाफ कड़ाई क्यों नहीं की जा रही जो नक्सलियों की खुली वकालत करने में लगे हुए हैं...ऐसे तत्व नक्सलियों का पक्ष लेने और यहां तक कि उनकी हिंसा जायज ठहराने के लिए नित-नए कुतर्क गढ़ रहे हैं और ऐसे गुमराह करने वाले सवाल भी उछाल रहे हैं...देश के लिए दंतेवाड़ा की घटना से लगे सदमे से उबरना आसान नहीं है.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अक्सर कहते रहे हैं कि माओवादी देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं.दंतेवाड़ा जिले के मुकराना जंगल में जिस घातक ढंग से माओवादियों ने सीआरपीएफ़ के 76 जवानों की हत्या की, उससे इस बात का मतलब लोगों को अब कहीं बेहतर ढंग से समझ में आएगा. हालांकि यह बात पहले भी साफ़ थी, लेकिन अब इसमें कोई संदेह नहीं बचा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) भारतीय राजसत्ता के खिलाफ़ युद्ध लड़ रहे हैं. मुकराना की घटना के दो दिन पहले ही यानी चार अप्रैल को उन्होंने उड़िसा में स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप के नौ जवानों की इसी तरह हत्या की थी. फ़रवरी में लालगढ़ के पास सिल्दा में ईस्टर्न राइफ़ल्स फ़ोर्स के 24 जवानों की हत्या अभी बहत पुरानी बात नहीं हई है. माओवादी ऐसे हमले इसलिए कर पा रहे हैं, क्योंकि उनके पास सुनियोजित तैयारी है. उनके पास इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आइइडी) बनाने का ढांचा है, आधुनिक हथियार हैं...सुरक्षा बलों से छीने गये हथियारों के साथ लगातार बड़ा होता जा रहा है. साथ ही उनके पास छापामार युद्ध लड़ने में प्रशिक्षित लड़ाके हैं. सवाल है कि क्या कोई भी राजसत्ता अपनी जमीन पर इस तरह की सशस्त्र चुनौती को बरदाश्त कर सकती है...माओवादियों के समर्थक बुद्धिजीवी और कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि ये जवान ऑपरेशन ग्रीन हंट के तहत लोगों का शिकार करने जाते हैं, तो खुद शिकार हो जाते हैं. टीवी चैनलों की बहस में वे खुलेआम माओवादियों को क्रांतिकारी बताते हैं. और इसके साथ ही माओवादियों के साथ बातचीत कर समस्या का हल निकालने की वकालत की जाती है.अब प्रश्न है कि सरकार बातचीत करे या इस आंतरिक विद्रोह को नियंत्रित करे? सवाल है कि बातचीत की बात एक ईमानदार पहल है या असली उद्देश्य पर परदा डालने की एक कोशिश है? भारत को आज इन सवालों से दो-चार होना पड़ रहा है, लेकिन अब इसका जवाब ढूंढने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है....सीरआरपीएफ के जवान मौत के घाट उतार दिए गए..तो माओवाद समर्थक जायज ठहराने को सड़कों पर उतर आए..ऑपरेशन ग्रीन हंट को नाजायज ठहराया, पर सुरक्षा बलों की हत्या को जायज..अब ये समर्थक कोई और नहीं..कहीं कोई माओवादी या आतंकी सजा पा जाए...तो ये फौरन मानवाधिकार का राग अलापेंगे...क्या देश की मासूम जनता का कोई मानवाधिकार नहीं...क्या देश की सुरक्षा में अपना जीवन न्योछावर करने वाले जवानों का कोई मानवाधिकार नहीं...आखिर कब तक सुरक्षा बल कुर्बानी देते रहेंगे...सुरक्षा बल भी इंसान हैं, उनका भी परिवार है..पर माओवादियों को अपने निजी स्वार्थ के सिवा कुछ नहीं दिख रहा..यों जैसी माओवादी मानसिकता, वैसी ही अपनी राजनीति भी...हर चीज को वोट के चश्मे से देखते हैं राजनीतिक दल...तभी तो भाजपा राज में माओवादियों के खिलाफ शुरु हुआ युनीफाइड कमांड ऑपरेशन यूपीए की पहली पारी में पूरी तरह से ठप रहा..तबके होम मिनिस्टर माओवादियों को अपना भाई बता समझाने का प्रवचन संसद में देते रहे..अब चिदंबरम ने ऑपरेशन ग्रीन हंट शुरु किया, तो एक्शन से श्यादा बयानबाजी करते दिखे...माओवाद और आतंकवाद जैसे अहम मुद्दे पर भी कभी राजनीतिक एकता नहीं दिखती..अलबत्ता सुविधा की राजनीति सबको मुफीद..झारखंड में शिबू-बीजेपी की सरकार माओवादियों के प्रति नरमी दिखाती..तो बीजेपी जुबान सिल कर बैठ जाती..अब बीजेपी शासित छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में हमले हुए..तो सरकार के हर एक्शन को ब्लैंक समर्थन का एलान कर दिया..नेताओं को तो सिर्फ वोट बैंक साधाना आता है..बाकी देश और व्यवस्था जाए भाड़ में...तभी तो 76 सुरक्षा बल मारे गए..तो सरकार की ओर से वही घिसा-पिटा बयान आया...माओवादी मर्डरर हैं...मुंहतोड़ जवाब देंगे..सघन कार्रवाई करेंगे..माओवादियों को बख्शा नहीं जाएगा..अब ऐसे बयानों से कब तक जनता को ठगेंगे नेता..इससे पहले 2005 में दंतेवाड़ा में ही 30 जवानों को माओवादियों ने उड़ा दिया था...फिर 2007 में बीजापुर में 55 जवान मारे गए...पिछले साल जुलाई में 30 पुलिस वाले मारे गए थे..माओवादियों का दावा देश के 165 जिले उनके नियंत्रण में...लगातार बयान आता है कि माओवादी अपना रास्ता भटक गए हैं..अगर माओवादी अपनी राह से भटक चुके तो राजनीति भी संभली हुई नहीं है..ऐसे में माओवादियों के पक्षधर पर पहले लगाम लगाने की आवश्कता है..

Comments

Anonymous said…
http://www.youtube.com/watch?v=sattpwjhc34&feature=player_embedded

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