नक्सली जो कर रहे हैं.वह सही है.या गलत..यह भारत में नक्सलवादी आंदोलन के जनक कहे जाने वाले बुजुर्ग माओवादी नेता कानू सान्याल की मौत से समझा जा सकता है..कानू सान्याल की खुदकुशी माओवादियों के लिए आंख खोलने वाली साबित हो सकती है..सान्याल के साथ काम कर चुके कई वरिष्ठ नक्सलवादी नेताओं के मुताबिक अतिवादी कदम उठाकर सान्याल ने हिंसा में लगे माओवादियों को इशारा दिया कि वे जो कर रहे हैं, गलत है..उनकी मौत खुदकुशी का साधारण मामला नहीं है..यह जन्मजात क्रांतिकारी का विरोध है..नए जमाने के माओवादियों को उनका यह संदेश है कि वे जो कर रहे हैं वह अंतत: उसी तबके पर असर कर रहा है, जिसके लिए उन्होंने हथियार उठाए हैं..अपने अंतिम दिनों में कानू दा बार-बार कहते थे कि माओवादी रेड कॉरिडोर पर कब्जा बनाए रखने के लिए उनसे इत्तेफाक नहीं रखने वाले गरीबों को मार रहे हैं..फिर सुरक्षा बलों की कार्रवाई का भी गरीब ही शिकार बन रहे हैं..यह विचार उन्हें बेचैन करता था और अंतत: विरोध में उन्होंने खुदकुशी जैसा अतिवादी कदम उठा लिया.करीब चार दशक पहले पिछली सदी के सत्तर के दशक के आखिरी वर्षो में उन्होंने चारू मजूमदार के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल से किसानों व मजदूरों के हक में आंदोलन की शुरुआत की थी जिसे उत्तर बंगाल स्थित उनके गांव नक्सलबाड़ी के नाम पर नक्सल आंदोलन कहा गया....यह आंदोलन राजनीतिक परिवर्तन के लिए हिंसा के प्रयोग की वकालत करता था और उस दौर में युवाओं के वर्ग को इसने खासा आकर्षित किया..आंदोलन के जरिए कानू सान्याल मुख्यतः सशस्त्र तरीकों से नई व्यवस्था की स्थापना करना चाह रहे थे..मूल रूप से इनका जोर था, भूमि का न्याय पूर्ण वितरण, उत्पादन के साधनों पर सर्वहारा वर्ग का नियंत्रण..इसके लिए वे कार्ल मार्क्स लेनिन और माओ के सिंद्धांतो को सबसे बेहतर मानते थे.उनका मानना था कि किसी भी व्यवस्था में जाकर आप उसे बदलने में सफल नहीं हो सकते..कानू सान्याल हाल के कुछ वर्षों में नक्सलवादी आंदोलन से पूरी तरह निराश थे.वह मानते थे कि नक्सलवादी आंदोलन दिशा से भटक गया है..1972 में चारू मजूमदार की पुलिस हिरासत में रहस्मयी मौत के बाद सान्याल नक्सलवादी आंदोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे थे.और कई बड़ी घटनाओं में उनका हाथ माना गया था.व्यवस्था के खिलाफ एक सोच को पैदा करना और उसका प्रणेता बनना उन्हे महान बनाता है...उनका संघर्ष मार्ग दिखाता है तो उनकी सोच में परिवर्तन यह भी सिद्ध करता है कि आन्दोलन क्या है... कैसे होना चाहिये और क्यों होना चाहिये....जब तक समय के साथ उसमें बदलाव नहीं होगा..तब तक उसकी सफलता पर प्रश्नचिह्न लग सकते हैं..यही नक्सलवाद के साथ देखने को मिल रहा है...
मीडिया का व्यवसायीकरण होता जा रहा है..व्यासायी घराने अपना हित साधने के लिए मीडिया और उसके संसाधनों का जबरदस्त दोहन कर रहे हैं...उनके हित के आगे खबरों की कोई अहमियत नही..चाहे वह खबर सामाजिक सारोकार से ही जुड़ा हुआ मुद्दा क्यों न हो...जब हम लोगों को एक पत्रकार के रूप में दायित्वों को बताया गया तब हमने सोचा था कि हम अपने दायित्वों के लिए किसी से समझौता नहीं करेंगे...लेकिन दायित्वों का पढ़ाया गया पाठ अब किताबों तक ही सीमित रह गया है...कौन सी खबर को प्रमुखता से दिखाना है..और कौन सी खबर को गिराना है...ये वे लोग निर्धारित करने लगे हैं..जिनका पत्रकारिता से कोई सारोकार नहीं है...आज का पत्रकार सिर्फ कठपुलती बन कर रह गया है...डमी पत्रकार..इन्हें वहीं करना है...जो व्यसायी घराने के कर्ता-धर्ता कहें..मीडिया के व्यवसायीकरण ने एक सच्चे पत्रकार का गला घोंट दिया है..घुटन भरे माहौल में काम की आजादी छीन सी गई है..व्यवसायी घरानों ने मीडिया को एक जरिया बनाया है..जिसके जरिए वह सरकार तक अपनी पहुँच बना सके..और अपना उल्लू सीधा कर सके..अपना हित साधने के लिए इन्होंने मीडिया को आसान जरिया चुना है...मीडिया के इस
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